DUSU चुनाव 2025: ABVP के आर्यन मान की जोरदार जीत, तीन पदों पर कब्जा

DUSU चुनाव 2025: ABVP के आर्यन मान की जोरदार जीत, तीन पदों पर कब्जा

ABVP की वापसी और कैंपस की सियासत का नया मोड़

दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्रसंघ के DUSU चुनाव 2025 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) ने बड़ी बढ़त के साथ वापसी की है। ABVP के प्रत्याशी आर्यन मान ने अध्यक्ष पद पर जोसलीन नंदिता चौधरी (NSUI) को 16,196 वोटों से हराया—यह मार्जिन बताता है कि कैंपस की हवा किस तरफ चली। चार केंद्रीय पदों में से तीन ABVP के पास गए, जबकि उपाध्यक्ष पद NSUI ने अपने खाते में रखा। यह नतीजा सिर्फ व्यक्तित्व की जीत नहीं, छात्र राजनीति के पावर बैलेंस में बदलाव का संकेत भी है।

मतदान 18 सितंबर 2025 को 52 केंद्रों और 195 बूथों पर हुआ। 2.75 लाख से ज्यादा योग्य छात्रों में से 39.45% ने वोट डाला—कैंपस के लिहाज़ से यह भागीदारी ठीक-ठाक मानी जाएगी, खासकर तब जब पढ़ाई, इंटर्नशिप और रोज़ के सफर के बीच वोटिंग के लिए समय निकालना आसान नहीं होता। उत्तर कैंपस में ड्रोन से निगरानी, अतिरिक्त पुलिस तैनाती, और कॉलेजों के बाहर सर्कुलर रूट मैनेजमेंट—सब कुछ इस बार की सुरक्षा तैयारी का हिस्सा रहा। माहौल गर्म था, पर प्रशासन ने उसे नियंत्रण में रखा।

नतीजों की तस्वीर साफ है: अध्यक्ष—आर्यन मान (ABVP), उपाध्यक्ष—राहुल झांसला (NSUI), सचिव—कुनाल चौधरी (ABVP) और संयुक्त सचिव—दीपिका झा (ABVP)। चार में से तीन पद ABVP के पास जाना रणनीति और ग्राउंड मोबलाइजेशन का संकेत देता है। उपाध्यक्ष पद NSUI के खाते में जाना यह भी याद दिलाता है कि मुकाबला एकतरफा नहीं था—कैंपस में वैकल्पिक नैरेटिव को समर्थन मिला है।

दिल्ली हाई कोर्ट ने चुनाव के बीच सबसे सख्त निर्देशों में एक जारी किया—राजधानी में विजय जुलूसों पर रोक। कोशिश साफ थी: नतीजों के बाद किसी तरह की अव्यवस्था न फैले और नए पदाधिकारी बिना बाधा काम संभालें। प्रशासन ने कॉलेज परिसरों में पोस्टरिंग, ड्रम-बाजे और जुलूस जैसी गतिविधियों पर भी कड़ी नज़र रखी, ताकि कक्षाएं बाधित न हों और कानून-व्यवस्था दायरे में रहे।

यह चुनाव कुछ वजहों से खास रहा—लैंगिक प्रतिनिधित्व, छात्र कल्याण और कैंपस सेफ्टी पर बहस ज़्यादा मुखर दिखी। हॉस्टल सीटें, फीस और मेस चार्ज, ट्रांसपोर्ट महंगाई, वाई-फाई की दिक्कतें, और दिव्यांग छात्रों के लिए एक्सेस—ये विषय मेन स्टेज पर आए। यही वजह है कि वोटरों ने घोषणापत्र पढ़े और मुद्दों पर वोट किया, सिर्फ नारों पर नहीं।

आर्यन मान का प्रोफाइल, वादे और आगे की चुनौती

23 साल के आर्यन मान हरियाणा के बहादुरगढ़ से हैं। हंसराज कॉलेज से 2025 में बी.कॉम ग्रेजुएशन के बाद वे दिल्ली यूनिवर्सिटी में लाइब्रेरी साइंस में एमए कर रहे हैं। खेलों से उनका पुराना नाता है—फुटबॉल मैदान में सक्रिय और कॉलेज गतिविधियों में नियमित चेहरा। छात्र आंदोलनों में उनकी भूमिका फीस बढ़ोतरी के खिलाफ अभियानों और इंफ्रास्ट्रक्चर सुधार की मांगों से पहचानी जाती है—इसी पहचान को उन्होंने वोट में बदला।

परिवारिक बैकग्राउंड भी चर्चा में रहा। पिता सिकंदर मान बारही स्थित ADS ग्रुप में एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं और परिवार रॉयल ग्रीन ब्रांड से जुड़ा है। बड़े भाई विराट मान ADS ग्रुप के सीईओ हैं और रोकोब्रांड में डायरेक्टर—कैंपेन में उनका सपोर्ट दिखा। सोशल मीडिया पर लग्ज़री कारों में प्रचार, सेलिब्रिटी एंडोर्समेंट, और हाई-प्रोडक्शन कैंपेन वीडियो—इन सबने आर्यन की पहुँच बढ़ाई, लेकिन साथ ही अमीरी की इमेज पर सवाल भी उठे। आर्यन की टीम ने इसे ‘मैसेज पहुंचाने की नई रणनीति’ बताया और मुद्दों पर फोकस रखने की कोशिश की।

घोषणापत्र में आर्यन और ABVP ने जो वादे किए, वे सीधे छात्रों की रोज़मर्रा की जरूरतों को छूते हैं—सब्सिडाइज्ड मेट्रो पास, कैंपस-वाइड फ्री वाई-फाई, एक्सेसिबिलिटी ऑडिट और रिपोर्टिंग, और स्पोर्ट्स इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करना। मेट्रो पास पर जोर इसलिए, क्योंकि नॉर्थ-साउथ कैंपस और ऑफ-कैंपस PG/रेंटल में रहने वाले हजारों छात्र रोज़ाना लंबी दूरी तय करते हैं—किराया सीधा जेब पर असर डालता है। वाई-फाई की समस्या लाइब्रेरी और डिपार्टमेंट ब्लॉक्स के ‘डेड जोन्स’ में सबसे ज्यादा महसूस होती है—यहां छोटे-छोटे सुधार बड़ा फर्क डाल सकते हैं।

एक्सेसिबिलिटी का मसला अब सिर्फ ‘रैंप बनवा देने’ तक सीमित नहीं। क्लासरूम से लेकर एग्जाम हॉल और लैब तक, टैक्टाइल साइनज, एलेवेटर में ब्रेल, और डिजिटल मैटेरियल की रीडर-फ्रेंडली कॉपी—यही असली टेस्ट है। आर्यन कैंपेन ने ऑडिट, टाइमलाइन और जिम्मेदार इकाई तय करने की बात कही—यानी ‘किसने क्या किया’ इसका ट्रैक छात्रों को मिले। स्पोर्ट्स में भी मुद्दा सिर्फ मैदान नहीं, कोचिंग स्लॉट, ट्रायल कैलेंडर और फिटनेस इंफ्रास्ट्रक्चर है—टीम ने इसे प्राथमिकता सूची में रखा।

अब सबसे कठिन हिस्सा शुरू होता है—वादों को नीतियों में बदलना। DUSU के पास सीधे बजट सीमित होता है, असल काम DU प्रशासन, डीन ऑफ स्टूडेंट्स वेलफेयर और कॉलेज गवर्निंग बॉडीज़ के साथ तालमेल से होता है। यानी नए पैनल को फंडिंग, प्रक्रियाओं और मंजूरी की लंबी सीढ़ियां चढ़नी होंगी। यही जगह है जहां छात्र नेताओं की नेगोशिएशन और फॉलो-थ्रू क्षमता पर असली परीक्षा होती है—बैठकों के मिनट्स से लेकर कार्ययोजना की सार्वजनिक टाइमलाइन तक।

NSUI के राहुल झांसला का उपाध्यक्ष बनना विपक्ष की जगह मजबूत करता है। छात्र राजनीति में चेक-एंड-बैलेंस तभी काम करता है जब विपक्ष सक्रिय और तथ्य-आधारित हो—क्लास रिप्रेजेंटेटिव से लेकर सोसाइटी स्तर तक मुद्दों को उठाने की जिम्मेदारी साझा होगी। उपाध्यक्ष पद पर NSUI की मौजूदगी का मतलब है कि बहस एकतरफा नहीं रहेगी और पारदर्शिता पर दबाव बना रहेगा।

सुरक्षा और अनुशासन पर इस बार का फोकस असामान्य रूप से सख्त रहा। नॉर्थ कैंपस में ड्रोन सर्विलांस, गेट्स पर आईडी चेकिंग, और कॉलेजों के आसपास पेट्रोलिंग—इन उपायों ने चुनावी भीड़ को व्यवस्थित रखा। हाई कोर्ट के आदेश के बाद नतीजों के तुरंत बाद भी कैंपस सामान्य ढर्रे पर लौट आया—कक्षाएं और लैब शेड्यूल बाधित नहीं हुए। चुनावी ऊर्जा बनी रही, पर शोर-शराबा सीमाओं में रहा।

DUSU के चुनावों की एक खास बात यह भी है कि यहां से निकले कई चेहरे आगे चलकर राष्ट्रीय राजनीति और पब्लिक पॉलिसी में नजर आते हैं। इस बार भी मुद्दों का दायरा स्थानीय से बड़ा था—नई शिक्षा नीति पर बहस, स्किल-बेस्ड सर्टिफिकेशन, स्टार्टअप-लैब सपोर्ट, और रिसर्च फंडिंग तक। यही वजह है कि DU को देश की छात्र राजनीति का बैरोमीटर कहा जाता है—यहां की नब्ज अक्सर बड़े राजनीतिक रुझानों की आहट देती है।

सोशल मीडिया ने कैंपेन की दिशा बदल दी। रील्स, शॉर्ट वीडियो, और मीम-बैटल ने रोज़ाना नैरेटिव सेट किया—कौन सा वादा पकड़ा, कौन सा बयान उलटा पड़ा, यह सब लाइव ऑडिट की तरह सामने आता रहा। लेकिन डिजिटल शोर के बीच ग्राउंड पर क्लास-टू-क्लास कैंपेन, होस्टल विज़िट्स और सोसाइटी मीट्स ही निर्णायक बने—यहीं से वोटर टर्नआउट और पोजिशनिंग तय हुई।

अब आगे क्या? नए पैनल के सामने पहले 100 दिनों की कसौटी होगी। छात्रों को एक पब्लिक डैशबोर्ड चाहिए—जिसमें वादे, प्रगति, देरी और नई डेडलाइन साफ लिखी हों। मेट्रो पास पर ट्रांसपोर्ट अथॉरिटीज़ से औपचारिक बातचीत का कैलेंडर, कैंपस वाई-फाई के लिए डेड जोन्स की सूची और फिक्सिंग शेड्यूल, और एक्सेसिबिलिटी ऑडिट की जिम्मेदार टीम—ये तीन कदम फटाफट डिलीवर किए जा सकते हैं। खेल सुविधाओं के लिए गर्मियों से पहले अपग्रेड की शुरुआत कर दी जाए, तो ट्रायल सीजन तक असर दिखेगा।

लैंगिक सुरक्षा पर भी ठोस कदमों की जरूरत है—रात में लाइब्रेरी/डिपार्टमेंट से निकलने वाले छात्रों के लिए ‘सेफ रूट’ मैपिंग, कैंपस लाइटिंग ऑडिट, और क्विक-रिस्पॉन्स मैकेनिज्म। एंटी-हैरसमेंट कमेटियों को छात्र प्रतिनिधियों के साथ तगड़ा किया जाए, तो शिकायतों के निपटारे की विश्वसनीयता बढ़ेगी। ऑफ-कैंपस PG/रेंटल में रहने वालों के लिए जिला प्रशासन के साथ समन्वय भी एजेंडा में होना चाहिए—यहीं सबसे ज्यादा सुरक्षा और किराए से जुड़ी शिकायतें आती हैं।

यह भी साफ है कि कैंपस चुनाव अब सिर्फ पोस्टर-बैनर की लड़ाई नहीं रहे। ‘पॉलिसी-लाइट’ वादों से आगे बढ़कर ‘पॉलिसी-डिटेल’ दिखानी होगी—कब, कैसे, किससे, कितने संसाधन में। आर्यन मान और उनकी टीम ने उम्मीद जगाई है; अब असली पहचान इस बात से बनेगी कि वे कागज से जमीन तक कितनी जल्दी और कितनी पारदर्शी तरह से काम पहुंचाते हैं। कैंपस देख रहा है, और इस बार उम्मीदें ज़्यादा हैं।

  • सित॰, 20 2025
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